साठ के ठाठ....
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जीने की असली उम्र तो साठ है..
बुढ़ापे में ही असली ठाठ है,
ना बचपन का होमवर्क,
ना जवानी का संघर्ष,
ना 40 की परेशानियां,
बेफिक्रे दिन और सुहानी रात है।
जीने की असली उम्र तो साठ है..
बुढ़ापे में ही असली ठाठ है,
ना स्कूल की जल्दी,
ना ऑफिस की किट किट,
ना बस की लाइन,
ना ट्रैफिक का झमेला,
सुबह रामदेव का योगा,
दिनभर खुली धूप,
दोस्तों यारों के साथ राजनीति पर चर्चा आम है।
जीने की असली उम्र तो साठ है..
बुढ़ापे में ही असली ठाठ है,
ना मम्मी डैडी की डांट,
ना ऑफिस में बॉस की फटकार,
पोते-पोतियों के खेल,
बेटे-बहू का प्यार,
इज्जत से झुकते सर ,
सब के लिए आशीर्वाद और दुआओं की भरमार है।
जीने की असली उम्र तो साठ है..
बुढ़ापे में ही असली ठाठ है,
ना स्कूल का डिसिप्लिन,
ना ऑफिस में बोलने की कोई पाबंदी,
ना घर पर बुजुर्गों की रोक टोक,
खुली हवा में हंसी के ठहाके, बेफिक्र बातें,
किसी को कुछ भी कहने के लिए आज़ाद हैं।
जीने की असली उम्र तो साठ है..
बुढ़ापे में ही असली ठाठ है।