हाँ ज़माना भी मुझे अब गैर कहता है,
मेरे शब्दों की मोहब्बत को वो शेर कहता है,
पता है न तुम्हे जब भी हम कुछ गुनगुनाते थे,
वो उन बीती यादो को ज़ख़्म का ढेर कहता है,
तमामें गुजरा वक़्त ऐसा के फिर वो लौट न पाया,
तेरे जाने की स्र्ख़सत को वो किस्मत का फेर कहता है,
खता क्या की थी जो हमने भी, एक ख्वाब देखा था,
मगर ये ख्वाब को भी वो काँटों का पेड़ कहता है,
बहुत ढूंढा तुझे मैंने ज़माने से यूँ छुप –छुपकर,
मेरे जज्बात को भी वो गले की टेर कहता है…